रानी दुर्गावति का इतिहास :
Rani Durgavati History |
शुरूआती जीवन -
रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर, 1524 ई. को उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में कालिंजर नामक स्थान पर एक किले में हुआ था। दुर्गाष्टमी के दिन जन्म होने के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया था। इनके पिता चंदेल वंश के शासक थे, जिन्होंने अपनी वीरता के दम पर महमूद गजनी को परास्त किया था और विश्व प्रसिद्ध मंदिर खजुराहों का निर्माण करवाया था।
जिसके कारण वे उस समय बहुत प्रसिद्ध राजा हुआ करते थे। जो आज भी मध्य प्रदेश के छत्तरपुर जिले में स्थित है, जिसे वर्तमान में विश्व विरासत सूचि में भी शामिल किया गया है।
रानी दुर्गावती को बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या सिखने में बहुत रूचि थी। उन्होंने बचपन में ही घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवादबाजी जैसी युद्ध कलाओं को सीख लिया था। इसके अलावा उनकी बन्दूक चलाने और शेर का शिकार करने में भी बहुत रूचि थी।
रानी दुर्गावती के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पिता के साथ में अपना ज्यादा से ज्यादा समय व्यतित करती थी और उनके साथ में कभी-कभी शिकार पर जाती रहती थी। इस प्रकार रानी दुर्गावती का बचपन बड़ी सुखद परिस्थितियों में बीता था।
विवाह -
रानी दुर्गावती के इतिहास के बारे में एक कहानी बताई जाती है कि एक दिन जब वे शिकार करने के लिए जंगल में घुम रही थी, तभी अचानक उनकी नजर जंगल में भ्रमण कर रहे दलपत शाह पर पढ़ती है। जिनकी बहादुरी से रानी पहले से ही बहुत प्रभावित थी और उन्हीं से शादी करना चाहती थी। लेकिन रानी दुर्गावती के पिताजी इस रिस्ते से खुश नहीं थे, क्योंकि वे राजपूत थे और दलपत शाह गोंड जाती के थे जो एक छोटी जाती मानी जाती थी।
किन्तु बाद में राजनीतिक परिस्थितियों और गोंडों की वीरता एवं साहस को देखकर रानी दुर्गावती के पिता इस शादी के लिए तैयार हो गए और 1542 ई. में दलपत शाह से रानी दुर्गावती की शादी हो जाती है।
उस समय मध्यप्रदेश में गोंड राजाओं का शासन 4 राज्यों में था - गढ़ मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला, जिन्हें वर्तमान में जबलपुर, दमोह, नरसिंहपुर, मंडला और होशंगाबाद जिलों के रूप में जाना जाता हैं। दलपत शाह के पिता संग्राम शाह गढ़ मंडला के शासक थे, शादी के बाद में बुन्देलखंड के चंदेल राजाओं और गोंढ राजाओं के बीच एक प्रकार का गठबंधन हो गया था।
जिसके परिणामस्वरूप जब 1545 ई. में शेर शाह सूरी द्वारा कालिंजर पर आक्रमण किया गया था तब गोंड राजाओं ने काफी हद तक कड़ी टक्कर दी थी।
संघर्ष :
1550 ई. में दलपत शाह का निधन हो जाता है जिसके बाद उनके बेटे वीरनारायण को 5 वर्ष की आयु में ही वहाँ का शासक बना दिया जाता है और रानी दुर्गावति और उनके सेनापति आधारसिंह मिलकर गोंडवाणा राज्य की बागडोर को संभालते हैं। रानी दुर्गावति ने सिर्फ राज्य का कार्यभार ही अपने हाथ में नहीं, बल्कि बाहरी आक्रमणों से अपने राज्य की सुरक्षा भी पूरे शाहस के साथ की।
रानी दुर्गावति ने अपने बेटे वीरनारायण को शासक बनाने के बाद अपने दिवान आधारसिंह और मंत्री मान ठाकुर की सहायता से अपने राज्य की सीमाओं को सुरक्षित करना शुरू कर दिया। जिसमें उन्होंने अपनी राजधानी सिंगोरगढ़ से स्थानांतरित कर चौरागढ़ कर ली थी,
जो सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला पर स्थित थी और अब वर्तमान में नरसिंहपुर जिले के गाडरवाड़ा में स्थित है। इस प्रकार उन्होंने अपने पूरे राज्य की सीमाओं को पहाड़ियों, जंगलों और नदियों के किनारे बसा कर उन्हें सुरक्षित कर लिया था।
इसके अलावा रानी दुर्गावति ने कई मठ, कुँए, बावड़ियाँ और धर्मशालाओं का भी निर्माण करवाया था। जिनमें उन्होंने अपनी प्रिय दासी के नाम पर "चेरीताल" और अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम "आधारताल" और स्वयं अपने नाम पर "रानीताल" बनवाई थी।
आक्रमण -
रानी दुर्गावति के शासनकल के समय मालवा के मुस्लिम शासक बाजबहादुर ने 1556 ई. में गोंडवाणा राज्य पर आक्रमण कर दिया। उसे लग रहा था कि यह एक महिला शासक हैं, जिसे मैं आसानी से हरा सकता हूँ और गोंडवाणा राज्य पर अपना अधिकार कर सकता हूँ,
परन्तु उसकी यह गलतफहमी बहुत जल्दी दूर हो गई और उसे पराजित होकर वापस लौटना पड़ा। उसके बाद बाजबहादुर ने कई बार आक्रमण किए, परन्तु उसे हर बार मुँह की खानी पड़ी और हर बार पराजित होकर अपने राज्य लौटना पड़ा।
1562 ई. में अकबर के सेनापति आधम खाँ ने मालवा के शासक बाजबहादुर पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया और मालवा को अपने अधीन कर लिया। अब रानी दुर्गावति और मुगल साम्राज्य की सीमाएँ आपस में मिल रही थी। गोंड़वाणा राज्य की समृद्धि को देख अकबर के सेनापति आसफ खाँ ने अकबर को रानी दुर्गावति पर आक्रमण करने के लिए भड़काकर तैयार कर लिया।
परन्तु अकबर के पास कोई कारण नहीं था रानी दुर्गावति पर आक्रमण करने का इसलिए उसने रानी दुर्गावति को पत्र लिखा और कहा कि मेरे पास आपका हाथी सरमन और दिवान आधारसिंह भेट स्वरूप भेज दीजिए। परन्तु रानी ने उनकी इस शर्त को ठुकरा दिया।
जिसके बाद 1562 ई. में अकबर ने आसफ खाँ के नेतृत्व में गोंडवाणा राज्य पर हमला कर दिया। हमले के बारे में जब रानी दुर्गावति को पता चला तो उन्होंने अपनी समस्त सैना को युद्ध के लिए तैयार कर लिया,
हालांकि रानी दुर्गावति के दिवान आधार सिंह ने उन्हें मुगलों की सेना की ताकत का आभाष करवाया था, परन्तु रानी दुर्गावति ने कहा कि कलंक के साथ जीने से अच्छा है गर्व के साथ अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो जाना ।
मैंने लम्बे समय तक अपनी मातृभूमि की रक्षा की और अब इस तरह अधीनता स्वीकार कर अपनी मात्र भूमि और अपने गौरव पर धब्बा नहीं लगने दूँगी। जिसके बाद रानी दुर्गावति ने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया और मुगल सैना पर आक्रमण कर दिया।
इस युद्ध में रानी दुर्गावति के सेनापति अर्जुन दास की मृत्यु हो जाती है जिसके बाद रानी स्वयं पुरूष के वेश में युद्ध का नेतृत्व करती है और मुगलों को पराजित कर देती है।
24 जून 1564 ई. को आसफ खाँ अपनी दोगुनी सेना और हथियारों के साथ रानी दुर्गावति पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ता है और जबलपुर के बरेला नामक स्थान पर दोनों के बीच एक घमासान युद्ध छीड़ जाता है। इस युद्ध में रानी दुर्गावति के पुत्र वीर नारायण भी शामिल थे। जहाँ पर उन्हें गम्भीर चोटे लग जाती है।
जिसके बाद वीर नारायण को एक सुरक्षित स्थान पर ले जाया जाता है और उसी के बाद रानी दुर्गावति को भी एक तीर उनकी गर्दन में और एक तीर उनकी आँख में लग जाता है जिसके बाद रानी दुर्गावति अपने वफादार दिवान आधारसिंह से कहती है कि मेरी गर्दन काट दो परन्तु वह मना कर देता है।
जिसके बाद रानी
स्वयं अपनी कटार निकालती है और अपने सिने में दाग कर वीरगति को प्राप्त हो जाती
है। जिसके बाद उनके पुत्र वीर नारायण पुन: युद्ध में लौटते हैं और मुगल सेना को
तीन बार पीछे हटने पर मजबूर कर देते हैं और अंत में वे भी वीरगति को प्राप्त हो
जाते हैं। इस प्रकार यहाँ पर रानी दुर्गावति की हार हो जाती है और गोंड साम्राज्य
का अंत हो जाता है।
वर्तमान सम्मान -
रानी दुर्गावति एक ऐसी वीरांगना थी, जिनके कारण इतिहास में आज भी गोंड़ जनजाति के लोगों का अस्तित्व बचा हुआ है और शायद यही कारण है गोंड़ जाति के लोग आज भी रानी दुर्गावति के समाधि स्थल जो कि मांडला और जबलपुर के बीच बरेला नामक स्थान पर स्थित है वहाँ पर जाकर उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
रानी दुर्गावति का बलिदान इसलिए भी Important हो जाता है, क्योंकि जहाँ पर ताकतवर मुगल साम्राज्य के आगे बड़े-बड़े राज्यों के राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। वहीं पर रानी दुर्गावति ने मरते दम तक अपनी मातृभूमि की रक्षा और गौरव के लिए आत्मसमर्पण नहीं किया था।
यही वजह है कि भारत सरकार ने उनके बलिदान को देखते हुए 24 जून, 1988 को रानी दुर्गावति के नाम एक डाक टिकट जारी कर उनके इस बलिदान का सम्मान किया है। इससे पहले भी 1983 में जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर रानी दुर्गावति विश्वविद्यालय रखा गया था।
0 Comments