Samundragupt : भारत में स्वर्ण युग की शुरूआत करने वाले शासक की कहानी ...?

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समुद्रगुप्त की सामान्य जानकारी:

शासक - समुद्रगुप्त
पित - चन्द्रगुप्त 
माता - कुमारदेवी
पत्नी - दत्तादेवी 
संतान - चनद्रगुप्त द्वितीय, रामगुप्त
उत्तराधिकारी - चन्द्रगुप्त द्वितीय
वंश - गुप्त वंश 
भाई - कांचगुप्त
शासनकाल - 335 से 375 ई.पू.
राजधानी - पाटलीपुत्र
नीति - धर्म का उदय हो तथा अधर्म का नाश हो।
रूचि - संगीत कला और कविता लिखना।

प्रारम्भिक जीवन और संघर्ष: 

समुद्रगुप्त, गुप्त वंश के तृतीय शासक चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र थे, जो आगे चलकर गुप्त वंश के चौथे उत्तराधिकारी बने। समुद्रगुप्त के अन्दर बचपन से ही युद्ध लड़ने की कुशलता और एक महान शासक बनने के सारे गुण मौजूद थे। यही कारण था कि  उनके पिता चन्द्रगुप्त प्रथम ने उन्हें अपने जीवित रहते ही मगध का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

जिसे दरबार के सभी लोगों और राजा के काउंसलरों द्वारा सहज स्वीकार कर लिया गया था, परन्तु यह बात उनके भाईयों को मंजूर नहीं थी। इसलिए उन्होंने गृह विद्रोह कर दिया था, जिसे दबाने में समुद्रगुप्त को लगभग 1 वर्ष का समय लग गया था। समुद्रगुप्त ने अपने भाईयों और उनके साथियों को पराजित करने के पश्चात् ही अपना राज्याभिषेक करवाया था। 


Samudragupt
Samudragupt


समुद्रगुप्त की जानकारी के स्त्रोत:

1. एरण अभिलेख: इस अभिलेख से समुद्रगुप्त के दैनिक जीवन और उपलब्धियों के बारे में जानकारियाँँ प्राप्त होती है, जिसमें बताया गया है कि समुद्रगुपत देवताओं में कुबेर की तरह धनी है और कर्ण की तरह दानी है तथा इन्द्र की तरह वीर है। इसके अलावा किसी व्यक्ति द्वारा अपराध करने पर यम की तरह दण्ड देने वाला भी बताया गया है।

2. प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख: इस अभिलेख में समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख किया गया है। प्रयागप्रशस्ति अभिलेख पहले कोशाम्बी में स्थित था, जिसमें अशोक ने अपने राज्य में किए जाने वाले कार्यों को अंकित करवाया था। इस अभिलेख को बाद में अकबर के शासनकाल के दौरान जहांगीर द्वारा प्रयागराज(इलाहाबाद) लाया गया था।

यहाँँ लोकर इसमें अकबर और बिरबल के बारे में जानकारी जोड़ी गई थी। प्रयागप्रशस्ति अभिलेख को वर्तमान में प्रयागराज के संगम पर अकबर द्वारा बनवाये गए, किले में रखा गया है। इस अभिलेख को सर्वप्रथम 1834 ई. में "कैप्टन-ए-दायर" द्वारा पढ़ा गया था, जिसमें कुल 33 पंक्तियाँँ हैं।  

साम्राज्य विस्तार:

समुद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में कंधार से लेकर पूर्व में आसाम तक तथा उत्तर में हिमालय के कीर्तिपुर जनपद से लेकर दक्षिण में सिंहल तक फैला हुआ था।

इतिहासकारों का मानना है कि उनके कालखण्ड में ऐसा कोई भी शासक नहीं था, जो उनके सामने युद्ध की चुनौती प्रस्तुत कर सकें। समुद्रगुप्त के बारे में कहा जाता है कि जब तक उन्हांने सम्पूर्ण भारत पर विजयी प्राप्त नहीं कर ली, तब तक उन्होंने 1 दिन भी आराम नहीं किया था।

सारे भारतवर्ष में पूर्ण शासन स्थापित कर लेने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अनेक अश्वमेघ यज्ञों का आयोजन करवाया और ब्राहृमणों और अनाथों को अपार दान दिया था। शिलालेखों में दान देने की इस प्रक्रिया को "चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्त्ता" और "अनेकाश्वमेधयाजी" कहा गया है।

समुद्रगुप्त को दी गई उपाधियाँँ:

1. धरणीबंध - इसका अर्थ "पूरे धरातल को एक सूत्र में बांधने वाला " होता है।

2. पृथब्याप्रतिरथ - इसका अर्थ "पुरी पृथ्वी को जीतने वाला" होता है। 

3. चन्द्रप्रकाश - यह नाम "काव्यालंकार" के सूत्र में आया है जो "वामन" की एक पुस्तक से लिया गया है।

4. कविराज - कविराज शब्द उनके व्यक्तिगत स्वभाव को दर्शाता है।

5. 100 युद्धों का विजेता - समुद्रगुप्त को 100 युद्धों का विजेता, इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अपने सम्पूर्ण शासनकाल में एक भी युद्ध नहीं हारा था। समुद्रगुप्त ने न केवल विदेशी आक्रमकताओं को पराजित कर देश से बहार किया था, बल्कि अपने बेटे विक्रमादित्य के साथ मिलकर भारत के स्वर्ण युद्ध की शुरूआत भी की थी।

6. भारत का नेपोलियन - यह शब्द उनकी विजयों को दर्शाता है, क्योंकि जिस प्रकार फ्रांस के शासक नेपोलियन बोना पाट ने सम्पूर्ण यूरोप को जीतने का निश्चय किया था, उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने भी पूरे एशिया को जीतने का निश्चय किया था। यह अलग बात है कि ये दोनों पूरी तरह अपने कार्य में सफल नहीं हो सकेंं थे, परन्तु बहुत हद तक कामयाब रहे थे।

इसीलिए "वि, स्थिम" द्वारा उन्हं भारत का "नेपोलियन" कहा गा है।

समुद्रगुप्त की प्रमुख विजयी :

आर्याव्रत विजयी :

मनुस्मृति में उत्तर भारत को आर्याव्रत कहा गया है। विंद पर्वत श्रेणी के उत्तर का समस्त भौगोलिक क्षेत्र आर्याव्रत कहलाता था। समुद्रगुप्त की आर्याव्रत में 2 प्रमुख विजयी शामिल है -

1. प्रथम आर्याव्रत विजयी - इस विजयी में समुद्रगुप्त ने 3 राज्य अच्यूत, नागसेन और कोतकुलज पर अपनी विजयी प्राप्त की थी।

2. द्वितीय आर्यात्रत विजयी - इसमें समुद्रगुप्त ने 9 राज्यों पर विजयी प्राप्त की थी, जिनमें से प्रमुख राज्य के राजा - नंदी, राजा बलवर्मा, नागसेन(जिसने पुन: विद्रोह किया था), गणपतनागदत्त, चन्द्रवर्मा, रूद्रदेव और मलिरत्न शामिल थे।

इन युद्धों में प्रयोग की गई नीति - इन विजयों में समुद्रगुप्त ने "प्रसभोद्रण" नीति का प्रयोग किया था, जिसका अर्थ होता था - "राजा के राज्य को जीतकर उसे पूरी तरह से नष्ट कर देना।"

समुद्रगुप्त की इन विजयों का वर्णन प्रयागप्रशस्ति अभिलेख की 21वीं पंक्ति में किया गया है।

दक्षिण विजयी :

समुद्रगुप्त ने अपनी दक्षिण विजयी में 12 राज्यों पर विजयी प्राप्त की थी, जिनका क्रम कुछ इस प्रकार है - कौशल, महाकांतर, भोराल, पिष्टपुर का महेन्द्रगिरी, कौट्टूर, ऐरंडपल्ल, कांची, वेंगी, देवराष्ट्र, कोस्थलपुर, अवमुक्त, पाल्लक।

नीति - इन राज्यों को जीतने के लिए समुद्रगुप्त ने "ग्रहणमोक्षा अनुग्रह" नीति का प्रयोग किया था, जिसका अर्थ होता था - जिस राजा से उस राज्य को जीता है, उसे पुन: दया दिखाकर उसका राज्य लौटा देना और बदले में उसे अपनी अधीनता स्वीकार करवाना और उससे "कर" वसूलना।

समुद्रगुप्त की दक्षिण विजयों का उल्लेख प्रयागप्रशस्ति अभिलेख की पंक्ति नम्बर 19-20 में है।

आटविक राज्यों पर विजयी :

उत्तरप्रदेश के गाजीपूर क्षेत्र और मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र को मिलाने से बने क्षेत्र को आटविक राज्य कहा जाता था।

नीति - इन राज्यों को जीतने के लिए समुद्रगुप्त ने "परिचारीकृत" नीति का प्रयोग किया था, जिसका अर्थ होता है, जीते हुए राज्यों के राजाओं को अपना  सेवक बना लेना। अर्थात् सेवक का अर्थ युद्ध में सहयोग करने वाला न कि झाडु-पोछा लगाने वाला दास।

समुद्रगुप्त की इन विजयों का उल्लेख प्रयागप्रशस्ति अभिलेख की 21वीं पंक्ति में वर्णित है।

प्रत्यन्त राज्य (सीमावर्ती राज्यों की विजयी :

सीमावर्ती राज्यों में समुद्रगुप्त ने 2 प्रकार की विजयी प्राप्त की थी।

1. राजतंत्र - जिनमें उन्होंने 9 राज्यों पर अपनी जीत हासिल की थी।

2. गणतंत्र - इसमें उनहोंने तामलुक, नेपाल और असम तक के राज्यों पर विजयी प्राप्त की थी। इन राज्यों के बारे में कहा जाता है कि मगध का कोई भी शासक असम पर अपना राज्य स्थापित नहीं कर पाया था। यहाँँ तक मौर्य शासक भी असम राज्य को नहीं जीत पाए थे।

नीति - इस युद्ध में समुद्रगुप्त ने "सर्वकर दानाज्ञाकरण प्रमाणा गयन" नीति का पालन किया था, जिसका अर्थ होता है - अपना राज्य हारे हुए राजाओं को सभी प्रकार के "कर" देने होंगे और प्रतिवर्ष साल में 2 बार समुद्रगुप्त के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी।

इन विजयों का उल्लेख प्रयागप्रशस्ति अभिलेख की 22वीं पंक्ति में वर्णित है।

विदेशी राज्यों पर विजयी :

समुद्रगुप्त ने विदेशी राज्योंं पर विजयी के क्रम में "शक", "कुशाण" और "श्रीलंका" आदि राज्यों पर विजयी प्राप्त की थी। जिसमें कुषाण का शासक राजा केदार व श्रीलंका का शासक मेघवर्मा था।

नीति - इन राज्यों पर विजयी प्राप्त करने के लिए समुद्रगुप्त ने "कन्यादानोपनाय" की नीति का पालन किया था, जिसका अर्थ होता था- कन्या दान करना, अर्थात् जिस प्रकार अपनी बेटी की विदाई के समय एक पिता का सर झुक जाता है उसी प्रकार हारे हुए राजा को समुद्रगुप्त के दरबार में उपस्थित होकर हर वर्ष अपनी अधीनता दर्शाना होता था।

मुद्राओं का चलन :

समुद्रगुप्त ने अपने शासनकाल में निम्नलिखित छ: उच्चकोटी की स्वर्ण मुद्राओं का चलन करवाया था, जिनके नाम - धनुर्धर, परशु, वीणाशरण, अश्वमेघ, गरूड़(टाइगर) और व्याघहंता आदि थे।


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