हुमायूँ का द्वितीय शासनकाल 1555-1556 ई. - HUMAYUN KA SECOND SASANCAL

हुमायूँ का द्वितीय शासनकाल (1555-1556 ई.) -

चौसा का युद्ध हारने के बाद हुमायूँ सिंध भाग गया था। सिंध आने के बाद हुमायूँ 1541 ई. में अपने भाई हिन्‍दाल के गुरू "मीर अली अकबर" (शियमीर) की पुत्री हमीदा बानू से विवाह करता है, जिनसे उन्‍हें अखबर नामक पुत्र प्राप्‍त होता है जो आगे चलकर मुगल साम्राज्‍य का भावी सम्राट बनता है। 

इसके बाद हुमायूँ अपने भाईयों कामरान और अस्‍करी से सहायता मांगता है, लेकिन हुमायूँ और उनके बीच अच्‍छे संबंध न होने के कारण वे हुमायूँ की मदद नहीं करते हैं।

इसी बीच हुमायूँ को एक offer मिलता है, ईरान के शाह द्वारा की तुम अगर "शिया धर्म" को स्‍वीकार कर लेते हो तो हम तुम्‍हारा साम्राज्‍य पुन: जितने में तुम्‍हारी सहायता कर सकते हैं। हुमायूँ इस शर्त को मान लेता है और ईरान के शाह की सहायता से काबूल और कंधार क्षेत्र पर आक्रमण करके जीत लेता है जो उसने अपने भाई  कामरान  को दिए थे।

उसके बाद कामरान कई बार हुमायूँ से अपना राज्‍य वापस लेने के लिए प्रयास भी करता है पर हर बार अफसल हो जाता है । जिसके बाद हुमायूँ, कामरान मिर्जा के आक्रमणों से परेशान होकर उसे बंदी बना लेता है।

 बाद में अस्‍करी को भी हुमायूँ द्वारा बन्‍दी बना लिया जाता है। अब बचा हिन्‍दाल तो वह भी 1551 ई. में एक युद्ध लड़ते हुए मारा जाता है। इस तरह 1555 ई. तक हुमायूँ के सभी भाईयों की मृत्‍यु हो जाती है और उसे सभी से छुटकारा मिल जाता है, क्‍योंकि भाईयों के कारण भी हुमायूँ बहुत परेशान था।

उसके बाद हुमायूँ को पता चलता है कि शेर शाह सूरी मर चूका है, और उसका पुत्र इस्‍लाम शाह भी मर चुका है और महमुद लोदी की मृत्‍यु तो चौसा के युद्ध से पहले ही हो गई थी।


हुमायूँ का द्वितीय शासनकाल
Humayun History

इसके बाद बाकी जो बचे थे अफगान राजा वे इतने कुशल नहीं थे कि हुमायँ को हरा सके। अब हुमायूँ पुन: पश्‍चिम के आन्‍तरिक भागों से होते हुए भारत में प्रवेश करता है और 15 मई, 1555 ई. को "मच्‍छीवाड़ा" में अफगानों और मुगलों के बीच युद्ध होता है, जिसमें अफगानों की हार होती है और इसी के साथ हुमायूँ का पंजाब पर अपना अधिकार हो जाता है।

जब इस बात का पता दिल्‍ली के शासक सिकन्‍दर सूर को लगता है तो वह हुमायूँ से युद्ध करने के लिए आगे बढ़ता है और दोनों के बीच 22 जून, 1555 ई. को "सरहिन्‍द" का युद्ध लड़ा जाता है।

जिसमें हुमायूँ अपने विश्‍वासपात्र सेनापति "बैरम खाँ" की सहायता से इस युद्ध को जीत लेता है और एक बार फिर से दिल्‍ली और आगर पर मुगलिया ध्‍वज लहरा देता है।  

किन्‍तु इस बार हुमायूँ की किस्‍मत में दिल्‍ली का शासन नहीं लिखा था। एक दिन हुमायूँ अपने द्वारा 1535ई. में बनाए गए नगर "दिनपनाह" में स्‍थित शेरमंडल नामक पुस्‍तकालय की सीढ़ियों से उतर रहा था, तभी अचानक उनका पैर फिसलता है और गिरने से उनकी मृत्‍यु हो जाती है।

1. इतिहासकार "लेनपूल" कहते हैं कि - हुमायूँ का पूरा जीवन उठते-पढ़ते ही गुजरा है और आखरी में उनकी मृत्‍यु भी सीढ़ी से गिर कर ही हो गई थी।

2. एक बात और ध्‍यान रखने योग्‍य मुगल साम्राजय में हुमायूँ ही एक ऐसा शासक था जो ज्‍योतिष विद्या में विश्‍वास रखता और हफ्ते के सातों दिन अलग-अलग कपड़े पहनता था। उनका मानना था कि अलग-अलग कपड़े पहनने से मुशीबते टल जाती है।

!!धन्‍यवाद!!


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