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हुमायूँ का सामान्य परिचय:
हुमायूँ का मकबरा - (Humayun Ka Makbara)
हुमायूँ की रानी हमीदा बानो बेगम(हाजी बेगम) ने हुमायूँ की मृत्यु के 9 साल बाद बनवाया था। जिसे बनने में सन् (1565-1572) लगभग (6-7) साल का लम्बा समय लगा था। जिसको "मिराक मिर्जा घियास" नामक वास्तुकार ने बनाया था। जो अभी दिल्ली में स्थित है।
हुमायूँ द्वारा साम्राज्य का बंटवारा :
हुमायूँ का जन्म 6 मार्च
1508 ई. को काबुल में हुआ था। उनका पूरा नाम नासिरूद्दीन मुहम्मद हुमायूँ था।
हुमायूँ के तीन भाई थे - कामरान, अस्करी और हिन्दाल । हुमायूँ का बाबर की मृत्यु के 4
दिन बाद ही 30 दिसम्बर 1530 ई. को मुगल साम्राज्य के सिहांसन पर राज्याभिषेक
किया गया था।
चूँकि बाबर ने अपनी मृत्यु
से पहले ही हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था तथा इसके साथ ही बाबर
ने यह भी कहा था कि मेरी मृत्यु के पश्चात् मुगल साम्राज्य को अपने सभी भाईयों
में बराबर बाँट देना। जिसके बाद हुमायूँ ने एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह
"कामरान" को पंजाब, काबुल और कंधार दे दिया।
"हिन्दाल" को मेवात और अलवर की जागीरे दे दी।
"अस्करी " को संभल की जागीर दे दी।"
इसके अलावा हुमायूँ ने अपने
चचेरे भाई "सुलेमान मिर्जा" को "बदख्शाँ" की जागीर दे दी। बाकि आगरा
और दिल्ली हुमायूँ ने अपने पास रख लिये। इतिहासकारों के अनुसार यह हुमायूँ की
पहली भूल मानी जाती है।
हुमायूँ द्वारा साम्राज्य का बंटवारा :
हुमायूँ का जन्म 6 मार्च 1508 ई. को काबुल में हुआ था। उनका पूरा नाम नासिरूद्दीन मुहम्मद हुमायूँ था। हुमायूँ के तीन भाई थे - कामरान, अस्करी और हिन्दाल । हुमायूँ का बाबर की मृत्यु के 4 दिन बाद ही 30 दिसम्बर 1530 ई. को मुगल साम्राज्य के सिहांसन पर राज्याभिषेक किया गया था।
चूँकि बाबर ने अपनी मृत्यु से पहले ही हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था तथा इसके साथ ही बाबर ने यह भी कहा था कि मेरी मृत्यु के पश्चात् मुगल साम्राज्य को अपने सभी भाईयों में बराबर बाँट देना। जिसके बाद हुमायूँ ने एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह
"कामरान" को पंजाब, काबुल और कंधार दे दिया।
"हिन्दाल" को मेवात और अलवर की जागीरे दे दी।
"अस्करी " को संभल की जागीर दे दी।"
इसके अलावा हुमायूँ ने अपने चचेरे भाई "सुलेमान मिर्जा" को "बदख्शाँ" की जागीर दे दी। बाकि आगरा और दिल्ली हुमायूँ ने अपने पास रख लिये। इतिहासकारों के अनुसार यह हुमायूँ की पहली भूल मानी जाती है।
हुमायूँ के प्रथम शासनकाल में लड़े गए युद्ध (1530-1540) -
1. कालिंजर का युद्ध - (Kalinjar Yudh)
हुमायूँ ने मुगल साम्राज्य की राजगद्दी पर बैठने के कुछ महीने बाद ही सन् 1531 ई. में अपना पहला आक्रमण सीमा विस्तार करने के लिए कालिंजर पर किया था। उस समय कालिंजर का शासक प्रताप रूद्रदेव था।
इस कारण हुमायूँ ने कालिंजर के शासक के पास संधि का प्रस्ताव भेजा, जिसे कालिंजर के शासक रूद्रदेव ने स्वीकार कर लिया। उसके बदले में रूद्रदेव द्वारा हुमायूँ को ढेर सारे पैसे दे दिए गए और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली गई, क्योंकि रूद्रदेव को भी पता था कि वह हुमायूँ का सामना नहीं कर सकेगा।
हुमायूँ भी रूद्रदेव से लड़कर अपनी शक्ति कमजोर नहीं करना चाहता था, क्योंकि उसे अफगानों से युद्ध करना था। इसके बाद हुमायूँ वहाँ से कुछ पैसे लेकर पूर्व में जौनपूर की तरफ अफगानों से युद्ध करने के लिए निकल पड़ाता है।
2. दोहरिया (देवरा) का युद्ध (1531 ई.) - (Dohariya Yudh)
3. चुनारगढ़ दुर्ग पर कब्जा (1532 ई.) - (Chunargarh Yudh)
इस विजय के बाद हुमायूँ यही पर नहीं रूका उसने जाकर चुनारगढ़ के दुर्ग को चारों तरफ से घेर लेता है और उसके आप-पास घेरा डालकर बैठे रहता है, लेकिन आक्रमण नहीं करता है। उस समय चुनारगढ़ का शासक शेर खाँ था, जिसे इतिहास में शेर शाह सूरी के नाम से जाना जाता है। शेर शाह सूरी अभी हुमायूँ से लड़ना नहीं चाहता था तो उसने एक षड़यंत्र रचा, जिसमें उसने हुमायूँ को संधि का प्रस्ताव भेजा।
जिसे हुमायूँ ने स्वीकार कर लिया और उसके बदले में शेर शाह सूरी ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली और लगभग 10 लाख रूपए हुमायूँ को दे दिए। इसके अलावा शेर खाँ ने हुमायूँ का विश्वासपात्र बनने के लिए अपने पुत्र कुतुब खाँ के साथ एक अफगान सैनिक की टुकड़ी मुगलों की सेवा के लिए दे दी।
वहीं हुमायूँ शेर शाह सूरी के इस षड़यंत्र को समझ नहीं पाया और शेर शाह सूरी से संधि करके वापस अपने राज्य दिल्ली लौट आता है और अपने भोग विलासिता के काम और दिनपनाह का निमार्ण करवाता है। इस तरह से डेढ़ से दो साल ऐसे ही बर्बाद कर देता है। इतिहास में यह हुमायूँ की तीसरी सबसे बड़ी गलती मानी जाती है।
बहादुर शाह और हुमायूँ के बीच गुजरात का युद्ध (1535-1536) -
बहादुर शाह गुजरात का शासक था जो हुमायूँ के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी के रूप में उभर रहा था। उसने मालवा तथा रायसीन के किले को जीत लिया था और मेवाड़(चित्तौड़) को भी संधि करने के लिए विवश कर दिया था। उसके साथ ही बहादुर शाह ने टर्की के प्रसिद्ध तोपची रूमी खाँ की सहायता से विशाल तोपों का निमार्ण भी करवा लिया था।
उसके बाद बहादुर शाह और हुमायूँ के बीच 1535 ई. में "सारंगपुर" नामक स्थान पर युद्ध शुरू होता है और इसमें भी हुमायूँ, बहादुर शाह पर विजयी प्राप्त करने में सफल हो जाता है। हुमायूँ मांडू और चम्पानेर को जितने के साथ ही मालवा तथा गुजरात पर भी अपना अधिकार जमा लेता है।
इसके बाद हुमायूँ अपने भाई को यहाँ का अधिकार सौंप देता है और यहाँ की सम्पति लूट कर चले जाता है। किन्तु हुमायूँ का भाई यहाँ पर ज्यादा समय तक शासन नहीं कर पाता है । एक वर्ष अन्दर ही बहादुर शाह पुर्तगालियों की मदद से 1536 ई. में गुजरात और मालवा पर आक्रमण कर पुन: अपने अधिकार में कर लेता है।
5. चौसा का युद्ध (26 जन,1539 ई.) - (Chousa Ka Yudh)
वहीं दूसरी तरफ शेर शाह सूरी ने "सूरजगढ़" के राज्य में बंगाल को हराकर अपनी शक्ति में लगातार वृद्धि कर रहा था। जो हुमायूँ के लिए एक चिंता का विषय बन गया था। उसके बाद हुमायूँ शेर शाह सूरी को दबाने के लिए आगे बढ़ता है और चुनारगढ़ पर आक्रमण करके चुनारगढ़ के किले को जीत लेता है, लेकिन तब तक शेर शाह सूरी बंगाल की तरफ बढ़ चुका होता है।
फिर हुमायूँ बंगाल पर भी आक्रमण करके जीत लेता है, लेकिन उसी समय हुमायूँ को खबर मिलती है कि उसके भाई हिन्दाल जिसको हुमायूँ ने मेवात और अलवर की जागीरें दी थी, उसने आगरा में विद्रोह कर खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया है।
यह खबर सुन कर हुमायूँ वापस लौटकर आ रहा था, उसी समय 26 जून, 1539 ई. को हुमायूँ और शेर शाह सूरी के मध्य बिहार राज्य के बक्सर जिले में स्थित गंगा नदी के उत्तरी तट पर स्थित चौसा नामक स्थान पर दोनों सेनाएँ आमने-सामने होती है।
कुछ महीने तक दोनों ही सेनाएँ एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करती है। वहीं शेर शाह सूरी बारीश का इन्तजार कर रहा था, क्योंकि बारिश में गंगा नदी का पानी उफान मरती है और मुग़ल सेना भी बारिश के कारण अपने टेंट में रहेगी तो आसानी से उन पर आक्रमण कर सकते हैं उसके बाद जैसे ही 26 जून, 1539 की रात को बारीश शुरू हुई वैसे ही शेर शाह सूरी ने अचानक हुमायूँ पर आक्रमण कर दिया।
जिसमें मुगल सेना की काफ़ी तबाही हुई तथा अंत में हुमायूँ युद्ध भी हार गया था तभी हुमायूँ ने अपनी जान बचाने के लिए गंगा नदी में घोड़े सहित छलांग लगा दी, जहाँ पर उसकी जान एक "निजाम" नामक भिश्ती ने बचाई और सही सलामत गंगा नदी से बहार निकाला।
कहा जाता है कि जिस भिश्ती ने चौसा के युद्ध में हुमायूँ की जान बचाई थी, उसको हुमायूँ ने बाद में एक दिन के लिए दिल्ली का शासक भी बनाया था। वहीं दूसरी ओर शेर खाँ ने युद्ध में इतनी बड़ी सफलता प्राप्त करने के बाद अपने आपको "शेरशाह" की उपाधि से नवाजा और साथ ही जीत के इस उप-लक्ष्य पर "खुतबा" पढ़वाया और अपने नाम के सिक्के चलाने का भी आदेश दिया।
"खुतबा" का मतलब आम बोलचाल की भाषा में "भाषण" होता है- जैसे किसी के नाम का भाषण पढ़वाना और उसमें उसकी तारीफ करवाना, उसी को बोलते हैं, "खुतबा" अब मुझे इसके बारे में ज्यादा पता नहीं है, शायद मुस्लिम लोग ज्यादा अच्छे से आपको इसके बारे में बता पाएँ।
6. कन्नौज (बिलग्राम) का युद्ध (17 मई, 1540 ई.) - (Kanoj/Bilgram ka Yudh)
चौसा का युद्ध हारने के बाद हुमायूँ दिल्ली की ओर बढ़ते जा रहा था और पीछे से शेर शाह सूरी भी उसका पीछा करतं हुए आ रहा था, क्योंकि वह चौसा का युद्ध जीत चुका था, तो उसका मनोबल वैसे ही बढ़ा हुआ था। अब हुमायूँ, शेर शाह सूरी से पहले ही एक युद्ध हार चुका था, जिसमें उसे काफी नुकसान हुआ था। इस कारण वह शेर शाह सूरी का दोबारा सामना नहीं कर सकता था।
इसलिए हुमायूँ ने सोचा कि क्यों न अपने भाईयों से सहायता ली जाए, लेकिन हुमायूँ के भाई युद्ध में शामिल होना तो दूर रहा वे हुमायूँ की युद्ध की तैयारियों में ही खलल पैदा कर रहे थे। उधर शेर शाह सूरी को यह बात अच्छे से पता थी कि हुमायूँ और उनके भाईयों में आपस में बनती नहीं, जिसका फायदा उठाकर शेर शाह सूरी ने 17 मई, 1540 ई. को हुमायूँ पर आक्रमण कर दिया।
यह युद्ध कन्नौज जिसे (बिलग्राम) के युद्ध के नाम से भी जाना जाता है नामक स्थान पर लड़ा गया। जिसमें हुमायूँ युद्ध हार गया और शेर शाह सूरी की विजयी हुई। इस युद्ध में मिली हार के बाद ही भारत से मुगल साम्राज्य का पतन हो गया।
हुमायूँ के पतन का कारण - (Humayun Ke Patan Ke Karan)
1. पारिवारिक एकता का अभाव -
2. साम्राज्य का विभाजन - (Samrajy Ka Vibhajan)
3. कालिजंर पर आक्रमण - (Kalinger Ka Yudh)
4. शेरशाह सूरी से संधि करना - (Sher Shah Suri Se Sandhi)
5. हुमायूँ द्वारा संधि करने का गलत फैसला -
हुमायूँ स्वयं को महान दिखाने के चक्कर में
हर बार अपने दुश्मन से संधि कर लेता था और अपनी अधीनता स्वीकार करवा कर उसे छोड़ देता था। यह भी उसकी एक बड़ी गलती
मानी जाती है।
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