18 जून 1576 ई. को हल्दीघाटी का युद्ध प्रारम्भ होता है, जिसमें महाराणा प्रताप की ओर से हकिम खाँ सूरी, झाला बीदा, झाला मान, भील नेता पूँजा, पूरोहित जगनाथ, पुरोहित गोपीनाथ, अखैराज सोनग्रा और भामाशाह व भाई ताराचन्द शामिल थे।
वहीं मुगलों की ओर से युद्ध का नेतृत्व मानसिंह कर रहे थे, जिनका साथ मिहतर खाँ, आसफ खाँ, सैय्यद हासिम, सैय्यद राजू, बहलोल खाँ और माधोसिंह कुच्छवाह दे रहे थे।
इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना अकबर की सेना की एक चौथाई थी। उदाहरण के लिए अगर महाराणा प्रताप के पास 20 हजार सैनिक थे तो राजा मानसिंह के पास 80 हजार सैनिक थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से सबसे पहले आक्रमण हकिम खाँ सूरी ने किया था और यह आक्रमण इतना भयानक था कि मुगल सेना को दोपहर तक ही तीतर-बितर कर दिया था।
इस युद्ध में महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक भी घायल हो गया था, जिसे देखकर बहलोल खाँ, महाराणा प्रताप को घेर लेता है। जिसके जवाब में महाराणा प्रताप उस पर इतना तेज प्रहार करते हैं कि उसे घोड़े सहित दो भागों में चीर देते हैं, जिसे देखकर मुगल सेना घबरा जाती है और युद्ध से पीछे हट जाती है।
जिसके बाद युद्ध कुछ समय के लिए स्थगित हो जाता है और मुगल सेना बनास के किनारे रक्त तलाई नामक स्थान पर पुन: एकत्रित होती है, जहाँँ पर मिहतर खाँँ अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए झुटी अफवाह फैला देता है कि अकबर भी हमारा सहयोग करने के लिए सेना लेकर निकल पड़ा है।
दूसरी तरफ आसफ खाँँ भी जेहाद का वास्ता देता है, जिससे सेना का हौंंसला बढ़ जाता है और वे पुन: युद्ध करने के लिए तैयार हो जाते हैं। जिसके बाद दौबार रक्त तलाई नामक स्थान पर युद्ध शुरू होता है जिसमें महाराणा प्रताप घायल हो जाते हैं।
जिसके कारण "झाला बीदा" उन्हें युद्ध से सुरक्षित बाहर निकालते हैं और स्वयं उनका "राज चिह्न" धारण कर को युद्ध जारी रखते हैं। लेकिन अंत में "झाला बीदा और झाला मान" दोनों भाई इस युद्ध में शहीद हो जाते हैं।
वहीं दूसरी तरफ महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक उन्हें अपनी पीठ पर बिठा कर "बलीचा" के पास स्थित एक 21 फिट लम्बी नदी को लांग कर उनकी जान बचाते हैं, लेकिन स्वयं वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं।
जिसके बाद महाराणा प्रताप वहीं पर चेतक का क्रियाक्रम करते हैं और उसकी स्मारक बनवाते हैं। जहाँँ पर आज भी चेतक की स्मारक स्थित है। इसी क्रम में महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह भी उनके पास मुगल दरबार से लौटकर वापस आ जाते हैं।
हल्दी घाटी युद्ध की कुछ महत्वपूर्ण बातें: -
1. हल्दी घाटी के युद्ध को बनास का युद्ध, रक्त तलाई का युद्ध और हाथियों का युद्ध भी कहा जाता है। साथ ही इस युद्ध को अनिर्णायक युद्ध भी कहा जाता है, क्योंकि इस युद्ध को दोनों में से कोई भी नहीं जीत पाया था।
2. महाराणा प्रताप के भाले का वजन 81 कि.ग्रा. और उनके कवच का वजन 72 कि.ग्रा. था। साथ ही उनके भाले, कवच और तलवार की ढाल का वजन कुल मिलाकर 208 कि.ग्रा. था। इतने वजन के साथ वे युद्ध के मैदान में उतरते थे।
3. जून की कडकती धूप में लड़े गए इस युद्ध में सैन्यबल की भारी क्षति हुई थी और साथ ही महाराणा प्रताप के लगभग 500 निकट सम्बन्धी भी मारे गए थे।
4. कर्नल जेम्सटॉर्ड - ने हल्दी घाटी के युद्ध को मेवाड़ का धर्मोपल्ली कहा है। वहीं अबुल फजल - ने इसे खमनौर का युद्ध कहा है।
5. जबकि बंदायुनी - जिन्होंने हल्दी घाटी के युद्ध को अपनी आँँखों देखा हाल बताया है, जिसमें उन्होंने इस युद्ध को गोगुन्दा का युद्ध बताया है।
अकबर द्वारा भेजे गए सैन्य अभियान - पहला, दूसरा और तीसरा
इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप कोल्यारी में अपनी घायल सेना का ईलाज करवाते हैं तथा कुछ समय के लिए आवरगढ़ को अपना केन्द्र बनाते हैं और यही पर अरावली की गुफाओं में रहकर भीलों की शक्ति को पहचानते हैं और अपनी छापे मार युद्ध पद्धति के माध्यम से 3 बार मुगलों द्वारा भेजे गए सैन्य अभियानों को असफल बनाते हैं।
यह सैन्य अभियान अकबर ने 1577,78,79 ई. में शहबाज खाँ के नेतृत्व में भेजे थे, महाराणा प्रताप को बन्दी बनाने के लिए, लेकिन वह कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अपना अधिकार करने में तो सफल हो गया, परन्तु महाराणा प्रताप के बन्दी बनाने में सफल नहीं हो सका था।
इन सैन्य अभियानों के कुछ समय पश्चात् ही महाराणा प्रताप मेवाड़ के गौरव कहे जाने वाले भामाशाह की मदद से पुन: अपने सैन्यबल को मजबूत करते हैं और मेवाड़ पर आक्रमण कर पुन: उदयपुर, मांडलागढ़, कुंभलगढ़ और मोही आदि राज्यों को जीत लेते हैं।
इस युद्ध के लिए भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण सम्पति जिसमें 20 लाख असरफियाँ और 25 लाख रूपए महाराणा प्रताप को दे दिए थे।
अकबर का चौथा सैन्य अभियान -
अकबर अपनी लगातार हो रही हार का बदला लेना चाहता था इसलिए उसने पुन: 1580 ई. में चौथा सैन्य अभियान "अब्दूर्रहिम खान-ए-खाना" के नेतृत्व में भेजते हैं, परनतु अकबर का यह भी अभियान सफल नहीं हो पाता है और उल्टा महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह प्रथम द्वारा अब्दूर्रहिम के साथ आई हरम की महिलाओं को बन्दी बना लेता है, लेकिन बाद में महाराणा प्रताप के कहने पर, उन्हें वापस छोड़ दिया जाता है और इसी के साथ अब्दूर्रहिम वापस लौट जाता है।
महाराणा प्रताप द्वारा चलाए गए विजय अभियान :
अकबर के चौथे अभियान के बाद, महाराणा प्रताप मेवाड़ के सभी राज्यों को जितने के लिए एक विजय अभियान शुरू कर देता है, जिसमें एक महत्वपूर्ण युद्ध दिवैर का युद्ध माना जाता है। जिस पर मुगल गवर्नर सुल्तान खाँँ का शासन था जो अकबर का चाचा था।
यहाँँ पर 1582 ई. में महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह प्रथम द्वारा आक्रमण किया जाता है। इस युद्ध में कहा जाता है कि अमर सिंह, सुल्तान खाँँ पर अपने भाले से इतनी तीव्रता से प्रहार करते हैं कि भाला उसे और उसके घोड़े दोनों को भेद कर जमीन में धंस जाता है। इस प्रकार यह युद्ध अमरसिंह जीत जाते हैं और मुगलों की यहाँँ पर हार हो जाती है।
दिवैर के युद्ध को "कर्नल जैम्सटॉस" द्वारा मेवाड़ का "मेराथन" कहा गया है।
अकबर का पांचवा और अन्तिम सैन्य अभियान :
दिवैर युद्ध के पश्चात् अकबर ने अपना पांचवा और अन्तिम सैन्य अभियान सन् 1584 ई. में "जगन्नाथ कच्छवाहा" के नेतृत्व में भेजा था, किन्तु अकबर का यह सैन्य अभियान भी असफल रहा था। क्योंकि जगन्नाथ कच्छवाहा का आते समय रास्ते में ही "माण्डलगढ़" नामक स्थान पर देहान्त हो जाता है।
मांडलगढ़ जो अब भेलवाड़ा में स्थित हैं। इसके बाद अकबर ने महाराणा प्रताप के विरूद्ध कोई भी सैन्य अभियान नहीं चलाया। इस युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप ने 1585 ई. में चावंड़ के शासक "लुणा चावंड़िए" पर आक्रमण कर उसे जीत लिया और चावंड को अपनी राजधानी बना लिया।
महाराणा प्रताप की मृत्यु:
चावंड, उदयपुर में स्थित हैं। यही पर महाराणा प्रताप ने अपने जीवन के अन्तिम 12 वर्ष खुशी से बिताए और 19 जनवरी, 1597 ई. को चावंड़ में उनकी मृत्यु हो जाती है।
महाराणा प्रताप की मृत्यु तो "चावंड़" में होती है, परन्तु उनका अन्तिम संस्कार "बाण्डौली" में किया जाता है, जहाँँ पर उनकी 8 खम्बों वाली छतरी आज भी बनी हुई है जो उदयपुर में स्थित है।
1 Comments
इतिहास को वर्तमान पीढ़ियों से लुप्त प्राय कर सनातन संस्कृति के साथ गद्दारी के परिणाम स्वरूप ,आज दिशा विहीन होकर ,सभी मुगलों का महिमा मंडन आत्मा में ,महाराणा प्रताप जी के भाले की तरह आत्मा मे शूल की भाँति चुभने जैसे लगता है।
ReplyDeleteशत शत नमन,परम महा पराक्रमी महाराणा प्रताप जी के पावन चरणों में। संगठन ही शक्ति है। देशहित सर्वोपरि। हर हर महादेव। जय श्री राम। वंदे मातरम।