Jain Dharm History in Hindi - जैन धर्म की शुरूआत किसने की...? महावीर स्वामी कौन से स्थान पर थे.?

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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास :

जैन धर्म में कुछ 24 तीर्थंकर हुए हैं, जिनमें सबसे पहले तीर्थंकर या जैन धर्म के संस्‍थापक "ऋषभदेव" को माना जाता है। ऋषभदेव को आदिनाथ और वृषभनाथ के नाम से भी जाना जाता है। इनके बारे में प्रारम्‍भिक जानकारी ऋग्‍वेद से प्राप्‍त होती है।

जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में से सिर्फ 22,23 और 24वें तीर्थंकर के बारे में ही जानकारियाँ प्राप्‍त होती है अन्‍यों के बारे में कोई स्‍पष्‍ट जानकारी नहीं मिली है। इनमें से 22वें तीर्थंकर का नाम "अरिष्‍टेनेमी" था। इस 22 और 24वें तीर्थंकरों की जानकारी ऋग्‍वेद से प्राप्‍त होती है। इसके अलावा 23वें तीर्थंकर का नाम "पार्श्‍वनाथ" था।

परिचय -

जन्म - कशी (वाराणासी)
पिता - अश्वसेन (काशी के राजा)
गृह त्याग - 30 वर्ष की उम्र
ज्ञान प्राप्ति - सम्मेध पर्वत

पार्श्‍वनाथ ने अपने जीवन में चार शिक्षाएँ दी है जिनके बारे में आप आगे पढ़ेंगे ।


Jain Dharm History in Hindi
Jain Dharm History in hindi

24 वें तीर्थंकर महावीर स्‍वामी का इतिहास -

महावीर स्‍वामी जैन धर्म के 24 वें एवं अन्‍तिम तीर्थंकर थे जिन्‍हें जैन धर्म का वास्‍तविक संस्‍थापक कहा जाता है, क्‍योंकि पिछले 23 तीर्थंकरों के कार्यकाल में जैन धर्म का उतना विस्‍तार नहीं हुआ था जितना कि महावीर स्‍वामी के कार्यकाल में हुआ था।

परिचय -

जन्म - 540 ई.पू. कुण्डग्राम/वैशाली
मृत्यु - 468 ई.पू. पावापूरी (72 वर्ष)
बचपन का नाम - वर्द्धमान
पिता - सिद्धार्थ (ज्ञात्रिक कुल के मुखिया)
कुल/गोत्र - ज्ञात्रिक
माता - त्रिशाला देवी
पत्नी - यशोदा
पुत्री - अनौज्जा/प्रियदर्शनी
गृह त्याग - 30 वर्ष उम्र में
ज्ञान प्राप्ति - 12 वर्ष पश्चात् 42 वर्ष की उम्र में।

महावीर स्‍वामी ने अपने बड़े भाई "नन्‍दीवर्द्धन" से आज्ञा लेकर गृह त्‍याग किया था। इन्‍हें 12 वर्ष भ्रमण करने के पश्‍चात् "जाम्‍भिक" ग्राम में "शाल वृक्ष" के नीचे "ऋजुपालिका नदी" के किनारे 42 वर्ष की आयु में ज्ञान की प्राप्‍ति हुई थी। जैन धर्म में ज्ञान की प्राप्‍ति को "कैवल्‍य" कहा गया है।

महावीर स्वामी को दी गईं उपाधियाँ -

1. जिन - इसका अर्थ होता है "विजेता" अर्थात् महावीर स्‍वामी ने अपनी सम्‍पूर्ण इन्‍द्रियों पर पूर्णत: विजय प्राप्‍त कर ली थी और वे किसी भी प्रकार के सांसारिक मोह माया से बाहर आ गए थे।

2. अर्हंत - का अर्थ होता है "योगी" जो संसार के कल्‍याण हेतू अपना जीवन समर्पण कर चूका हो।

3. निग्रंथ - का अर्थ होता है "बंधन रहित" अर्थात् जो व्‍यक्‍ति पूरी तरह संसार या परिवार के बंधन से मुक्‍त हो चुका हो उसे निग्रंथ कहा गया है।

4. महावीर - का अर्थ होता है "साधना के प्रति समर्पण" अर्थात् महावीर स्‍वामी जब गृह त्‍याग करके निकले थे तब उनके पास केवल एक ही जोड़ कपड़े थे उसी को पहनकर वे 12 वर्षों तक भ्रमण करते रहे, जिससे उनके कपड़े फट कर नीचे गिर गए थे, परन्‍तु फिर भी वे कठोर तपस्‍या करते रहे।

लोग उन्‍हें पागल समझते रहे, किन्‍तु वे अपनी तपस्‍या में लीन रहे और 12 वर्षों के बाद उन्‍हें जाम्‍भिक ग्राम में शाल वृक्ष के नीचे ऋजुपालिका नदी के किनारे ज्ञान की प्राप्‍ति हो गई। ज्ञान प्राप्‍ति के बाद उन्‍होंने "नग्‍नता और कठोरता" को जैन धर्म का सैद्धान्‍तिक अंग बताया और पूरे जीवन नग्‍न रहकर ही जैन धर्म का प्रचार किया और उसका विस्‍तार किया।

महावीर स्वामी द्वारा स्थापित संघ या गणधर -

महावीर स्‍वामी ने ज्ञान प्राप्‍ति के पश्‍चात् संघ की स्‍थापना की जिसमें 11 अनुयायी शामिल थे, जिन्‍हें "गणधर" कहा जाता था। महावीर स्‍वामी की मृत्‍यु के पश्‍चात् संघ/गणधर की अध्‍यक्षता "सुर्थमन" ने की थी। कुछ समय पश्‍चात् इन गणधरों में परम्परा और नियमों को लेकर मतभेद होने लगा। जिसका नतीजा यह हुआ कि चन्‍द्रगुप्‍त मौर्य के शासनकाल आते-आते जैन धर्म दो भागों में बंट गया।

श्‍वेताम्‍बर और दिगम्‍बर -

1. श्‍वेताम्‍बर का नेतृत्‍व "स्‍थूलभद्र" ने किया जबकि दिगम्‍बर का नेतृत्‍व "भद्रबाहू" ने किया।

2. श्‍वेताम्‍बर को मानने वाले अनुयाईयों को 'श्‍वेत वस्‍त्र' पहनने का अधिकार मिल गया था।

जबकि दिगम्‍बर में वस्‍त्र पहनने की अनुमति नहीं थी वे पूर्णत: नग्‍न रहकर ही अपना कार्य करते थे।

3. श्‍वेताम्‍बर के गुरूओं ने परिस्‍थितियों को देखते हुए स्‍त्रियों को भी अपने धर्म में शामिल कर लिया अब वे भी "श्‍वेत वस्‍त्र" पहनकर मोक्ष प्राप्‍त कर सकती थी। जबकि दिगम्‍बर में स्‍त्रियों को शामिल नहीं किया गया था, क्‍योंकि वे नग्‍न नहीं रह सकती थी। इसलिए उनका मोक्ष प्राप्‍त करना सम्‍भव नहीं था।

4. श्‍वेताम्‍बर के अनुयायी महावीर स्‍वामी को एक भगवान का दर्जा देने लगे थे और "मथुरा शैली" का प्रयोग कर बड़ी मात्रा में उनकी मूर्तियाँ बनाकर पूजा भी करने लगे थे। जबकि दिगम्‍बर समुदाय के लोग महावीर स्‍वामी को एक महान पुरूष मानते थे, जिन्‍होंने अपनी इन्‍द्रियों पर विजयी प्राप्‍त कर ली है और वे "जिन" कहलाए थे। जिन का तात्‍पर्य विजेता से है। 

महावीर स्वामी के उपदेश एवं शिक्षाएँ -

1. महावीर स्‍वामी ने अपना पहला उपदेश मगध की राजधानी राजगृह में दिया था, जहाँ पर उनका प्रथम शिष्‍य "जामिल/जामालि" बने थे जो उनके दामाद थे।

2. जैन धर्म में पहली महिला भिक्षुणी "चम्‍पा" के शासक "दधीवाहन" की पुत्री "चंदना" बनी थी।

3. महावीर स्‍वामी ने इंसान के जीवन को दुखमयी बताया है तथा दु:ख का कारण कर्मफल को बताया है अर्थात् जैसा कर्म करोंगे फल भी उसी के अनुरूप मिलेगा।

दु:खों के निवारण हेतु त्रिरत्‍नों का मार्ग -

सम्‍यक् दर्शन - सत्‍य में विश्‍वास

सम्‍यक् ज्ञान - वास्‍तविक ज्ञान

सम्‍यक आचारण - सुख-दु:ख में सम्‍मान भाव रखना।

महावीर स्वामी के पाँच महाव्रत -

महावीर स्‍वामी ने पांच महाव्रतों को अपनाने की हर व्‍यक्‍ति को सलाह दी है। जिनमें से "अहिंसा" पर सर्वाधिक जोर दिया है।

1. सत्‍य - हमेशा सत्‍य बोलना और सत्‍य का पालन करना। कभी भी अपने फायदें के लिए असत्‍य का सहारा न लेना।

2. अहिंसा - किसी भी इंसान या जानवर के प्रति हिंसा न करना।

3. अस्‍तेय - चोरी नहीं करना।

4. अपरिग्रह - धन का मोह नहीं करना।

यह चारों शिक्षाएँ जैन धर्म में पार्श्‍वनाथ द्वारा दी गई थी जबकि पांचवी शिक्षा महावीर स्‍वामी द्वारा दी गई थी।

5. ब्रह्मचर्य - अर्थात् ब्रहृमचर्य का पालन करके ही आप अपने अन्‍दर की शक्‍तियों को जागृत कर सकते हैं।

जैन धर्म के पाँच वास्‍तविक सत्‍य -

आत्‍मा - महावीर स्‍वामी आत्‍मा में विश्‍वास रखते थे, क्‍योंकि उनका मानना था कि हर सजीव वस्‍तु में आत्‍मा होती है और उसे ठेस नहीं पहुँचाना चाहिए। अगर आप ऐसा करते हैं तो आप एक हिंसक प्रवृति के मानव है।

पुर्नजन्‍म - अगर आप अच्‍छे कर्म करते हैं तो भगवान आपको आपके कर्मों के हिसाब से पुर्नजन्‍म का अवसर जरूर देता है।

कर्म - इंसा को हमेशा कर्म करते रहना चाहिए, परन्‍तु उसे दुसरों से किसी फल की इच्‍छा नहीं रखना चाहिए।

मोक्ष - मोक्ष का अर्थ होता है जीवन-मरण के चक्र से आजाद होना ।

वर्ण-व्‍यवस्‍था - महावीर स्‍वामी के अनुसार समाज को एक ऐसे धर्म का पालन करना चाहिए जो उनको सत्‍य की राह पर चलने के लिए प्रेरित करे उसमें कोई भेदभाव या ऊँच-नीच न हो। 

जैन धर्म की प्रमुख जैन सभाएँ -

1. प्रथम जैन सभा - पहली जैन सभा पाटलिपुत्र में 4थी ई.पू. में हुई थी जिसकी अध्‍यक्षता "स्‍थूलभद्र" ने की थी। इस बैठक की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें जैन साहित्‍य के 12 अंगों का संकलन किया गया था।

2. द्वितीय जैन सभा - यह जैन सभा 6टी ईस्‍वी में लगभग 512 ई.पू. में हुई थी,जिसकी अध्‍यक्षता "देवधिगंण/क्षमाश्रवण" ने की थी।

जैन धर्म के प्रसिद्ध तीर्थंकरों के प्रतिक चिन्‍ह -

1. ऋषभदेव - बैल या वृषभ

2. अजितनाथ - हाथी

3. पार्श्‍वनाथ - सर्प

4. महावीर स्‍वामी - सिंह

जैन धर्म के पुरातन एवं आगम ग्रंथ -

1. अंग ग्रंथ - इन ग्रंथों की संख्‍या 12 है जिनमें जैन धर्म के सिद्धान्‍तों का वर्णन किया गया है।

2. उपांग - इन ग्रंथों की संख्‍या भी 12 ही है, इनका प्रयोग अंग ग्रंथों को समझने के लिए किया गया। जिस प्रकार वेद को समझने के लिए वेदागों का प्रयोग किया गया है उसी प्रकार अंगों को समझने के लिए उपांगों का प्रयोग किया गया है।

3. प्रकीर्ण - इनकी संख्‍या 10 है और इनमें विभिन्‍न ग्रन्‍थों का विश्‍लेषण किया गया है।

4. छेदसूत्र और मूलसूत्र - इन दोनों ग्रंथों में मूल रूप से भिक्षु और भिक्षुणीयों द्वारा पालन किए जाने वाले नियमों का उल्‍लेख किया गया है।

5. भगवतिसूत्र - इस ग्रंथ में 16 महाजनपदों और जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के बारे में जानकारियाँ दी गई है।

6. कल्‍पसूत्र - इस ग्रंथ की रचना जैनधर्म में दिगम्‍बर समुदाय के संस्‍थापक भद्रबाहू द्वारा की गई थी। जिसमें जैन धर्म के प्रारम्‍भिक इतिहास के बारे में जानकारी दी गई है।

स्‍यादवाद एवं अनेकातंवाद का अर्थ क्या होता है?

स्‍यादवाद एवं अनेकातंवाद का सम्‍बन्‍ध जैन धर्म से है। जिनका अर्थ होता है आत्‍मवादियों और नास्‍तिकों के बीच का मार्ग। अर्थात् आत्‍मवादियों से तात्‍पर्य ऐसे लोगों से है जो ईश्‍वर में विश्‍वास रखते थे और उनकी की पूजा करते थे। वहीं नास्‍तिकों का तात्‍पर्य ऐसे लोगों से है जो ईश्‍वर में विश्‍वास नहीं रखते थे। 
इन दोनों समुदायों के बीच के जो लोग थे उन्‍हें स्‍यादवाद एवं अनेकातंवाद कहा गया है। अर्थात् ऐसे लोग जो ईश्‍वर में विश्‍वास तो रखते हैं परन्‍तु कर्म को ज्‍यादा महत्‍व देते हैं। बाद में महावीर स्‍वामी ने इन लोगों को अपने धर्म में स्‍वीकार भी किया था। 

जैन धर्म के प्रसिद्ध मंदिर -

1. खजुराहों मन्‍दिर - यह मंदिर मध्‍यप्रदेश में स्‍थित है, जिसे चन्‍देल वंश के शासकों द्वारा बनवाया गया था। जहाँ पर हिन्‍दू धर्म के साथ-साथ जैन धर्म की मूर्तियाँ भी देखने को मिलती है।

2. माऊँट आबू मंदिर - इस मंदिर को राजस्‍थान में सोलंकी शासकों ने बनवाया था जो जैन धर्म से सम्‍बन्‍धित है। इस मंदिर को बनवाने के खास श्रेय सोंलकी शासकों के मंत्री "बिमल शाह" को जाता है।

3. श्रवणबेलगोला मंदिर - यह मंदिर भारत के कर्नाटक में स्‍थित है जहाँ पर बाहुबली की विशाल मूर्ति विराजमान है। इस मंदिर को मूल रूप से जैन धर्म से जोड़कर ही देखा जाता है, क्‍योंकि यहाँ पर हर 12 वर्ष में एक बार "महामस्‍तकाभिषेक" का उत्‍सव मनाया जाता है जो जैन धर्म का सबसे बड़ा त्‍यौहार माना जाता है। जहाँ पर बड़ी मात्रा में बाहुबली की मूर्ति की पूजा की जाती है। इस मूर्ति का निर्माण गंग वंश के मंत्रि "चामूण्‍डराय" ने करवाया था।

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