Table of Contant:
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कब और कैसे हुई?
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में "हरिहर और बुक्का" नामक दो भाईयों के द्वारा की गई थी। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के समय दिल्ली में तुगलक वंश का शासन चल रहा था, जहां का तात्कालिक शासक "मोहम्मद बिन तुगलक" था।
जब मोहम्मद बिन तुगलक दक्षिण भारत में अपना विजय अभियान चला रहा था, उसी क्रम में उसने "काम्पली" नामक एक राज्य पर आक्रमण कर उसे पराजित कर, उस पर अपना अधिकार कर लिया था जो कि दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्र में स्थित था।
यहाँँ पर वह "हरिहर और बुक्का" दो सैनिक भाईयों की विरता से बहुत प्रभावित होता है और उन्हें बन्दी बनाकर अपने साथ दिल्ली ले जाता है और उन्हें कुछ समय के लिए बंदी गृह में कैद कर देता है।
बाद में वह इन दोनों भाइयों के सामने एक प्रस्ताव रखता है कि अगर तुम इस्लाम धर्म स्वीकार कर लोगे तो, मैं तुम्हें रिहा कर दूॅंगा। साथ ही मैं तुम्हें एक शर्त पर वापस दक्षिण भारत का क्षेत्र भी दे दूँगा, अगर तुम दोनों भाई वहाँँ जाकर एक मुस्लिम राज्य की स्थापना करोगे।
उन दोनों भाईयों के पास उसकी शर्त को मानने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था, क्योंकि वे दोनों तुगलक के अधीन बंधी बनाए हुए थे।
Vijaynagar Samrajya History in hindi |
इसलिए उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद मोहम्मद बीन तुगलक ने उन्हें रिहा कर दिया और साथ ही दक्षिण भारत पर इस्लाम साम्राज्य का विस्तार करने के लिए कुछ सेना देकर भेज दिया।
यहाँँ आकर यह दोनों भाई सबसे पहले अपने गुरू "विद्यारण्य" से मिलते हैं और उनसे शिक्षा, दिक्षा प्राप्त करके पुन: हिन्दू धर्म को अपना लेते हैं। फिर दक्षिण भारत के विजयनगर क्षेत्र में जाकर ये दोनों भाई इस्लाम धर्म का विस्तार न करके एक हिन्दू साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में करते हैं और अपने पिता के नाम एक नए वंश "संगम वंश" की की नीव रखते हैं जो पूर्णतया: एक हिन्दू साम्राज्य था।
संगम वंश की स्थापना करने के पश्चात् हरिहर और बुक्का इन दोनों भाईयों ने सबसे पहले अपनी राजधानी अनेगोंंड़ी को बनाया, लेकिन यह नदी के किनारे स्थित होने के कारण ज्यादा सुरक्षित नहीं होती है। इसलिए इन्होंने अपनी दूसरी राजधानी विजयनगर को बनाया, जिसमें विजय का अर्थ "जीत" और नगर का अर्थ "शहर" होता है, अर्थात् "जीत का शहर"।
विजयनगर जो वर्तमान में "हम्पी" के नाम से जाना जाता है, वह कर्नाटक राज्य में स्थित है। हम्पी को वर्तमान में "यूनेस्कों द्वारा विश्व विरासत धरोहर" में भी शामिल किया गया है।
संगम वंश :
हरिहर - प्रथम 1336-1356 ई. तक :
विजय नगर साम्राज्य का प्रथम शासक "हरिहर प्रथम" बना था। इनके दरबार में एक वेद गुरू "सायान" रहते थे, जिन्होंने "वेदों पर टिक्का" नामक एक पुस्तक लिखी थी।
बुक्का 1356 - 1377 ई. तक :
इन्हें वेद पढ़ने में बहुत दिलचस्पी थी इसलिए इन्होंने "वेदमार्ग प्रतिष्ठापक" की उपाधि धारण की थी। इसके अलावा बुक्का का एक पुत्र था "कंपन" जिसे उसने कर्नाटक में स्थित "मदुरा" का क्षेत्र जीतने के लिए भेजा था।
जब वह मदुरा के क्षेत्र को जीत कर वापस अपने राज्य लौटता है तो उसकी पत्नी "गंगा देवी" उसकी मदुरा विजयी के बारे में एक पुस्तक लिखती है जिसका नाम "मदुरा विजयम" था। इसमें उसने मदुरा विजयी की विस्तृत जानकारी दी है।
हरिहर द्वितीय 1377-1404 ई. तक :
हरिहर द्वितीय के बारे में कहा जाता है कि यह अपने पूर्ववर्ती शासकों में से सबसे ज्यादा प्रतापी शासक था। इसने अपने कार्यकाल के दौरान बहमनी साम्राज्य के खिलाफ एक विजय अभियान चलाया था, जिसमें इसने दक्षिण भारत में कृष्णा नदी के नीचे के सम्पूर्ण भाग को जीत लिया था।
साथ ही बहमनी साम्राज्य से "बैलगांव और गोवा" का क्षेत्र भी छीन लिया था। जिसके कारण अब विजयनगर साम्राज्य, बहमनी साम्राज्य से ज्यादा ताकतवर हो चुका था।
देवराय प्रथम 1404 से 1422 ई. तक :
इन्होंने अपने शासनकाल के दौरान तुंगभद्रा नदी पर एक बांध बनवाकर यहां से एक नहर का निर्माण करवाया था जो विजयनगर साम्राज्य तक आती थी। जिसके माध्यम से विजयनगर में उन्होंने किसानों के लिए सिंचाई की व्यवस्था कर उत्पादन को बढ़ावा दिया था। जिससे राज्य का विकास भी तेजी से हो रहा था।
दूसरी बात इनके समय में एक इटली का विदेशी यात्री "निकोलस कोन्टी" भारत आया था, जिसने विजयनगर साम्राज्य की सुन्दरता और भव्यता की काफी चर्चा की थी।
देवराय द्वितीय 1422-1446 ई. तक :
देवराय द्वितीय संगम वंश का सबसे प्रतापि शासक माना जाता था, क्योंकि इनके पास 300 समुन्द्रीय बंदरगाह थे। साथ ही इनकी सेना में तुर्क क्षेत्र के सबसे योग्य धनुर्धर भी शामिल थे। इसके अलावा इस वंश के ये प्रथम शासक थे जिन्होंने "श्रीलंका" पर आक्रमण कर उस पर विजयी प्राप्त की थी।
साथ ही इन्होंने बहमनी साम्राज्य के शासकों पर आक्रमण कर उन्हें अपने सीमा क्षेत्र में रहने के लिए मजबूर कर दिया था।
इसके अलावा इन्होंने "गजबेडकर और इमादिदेवराय" की उपाधि धारण की थी। गजबेडकर का अर्थ होता है हाथियों का शिकार करने वाला या हाथियों पर नियंंत्रण करने वाला।
देवराय द्वितीय के शासनकाल में भी अन्य राजाओं की तरह एक फारसी यात्री "अब्दुल रजाक" भारत आया था। इसके अलावा एक तेलगु कवि "श्री नाथ" इनके दरबार में आया था और उसने देवराय के दरबारी कवि को शास्त्रास्त में पराजित कर दिया था, जिसके बाद ये कुछ दिनों तक इनके दरबार में ही रहा था।
संगम वंश का अंतिम शासक "विरपाक्ष द्वितीय" था, जिनकी 1485 ई. में हत्या "सालुव नरसिंंह" ने कर दी थी और सालुव वंश की स्थापना की दी थी।
सालुव वंश 1485-1505 ई. तक :
इस वंश की स्थापना "सालुव नरसिंंह" द्वारा की गई थी, जिनका कार्यकाल ज्यादा समय तक नहीं चला था, क्योंकि नरसिंह को उड़िसा के राजाओं ने पराजित कर दिया था, जिसके बाद कुछ समय तक जैसे-तैसे कर पांच साल तक और चला इनका शासनकाल ।
फिर इनकी मृत्यु के बाद इनके पुत्र "इमाड़ी नरसिंह" शासक बनते हैं, परन्तु उन्हें "वीर नरसिंह" 1505 ई. में पराजित कर देता है और तुलुव वंश की स्थापना कर देता है।
तुलुव वंश 1505-1509 ई. तक :
तुलुव वंश की स्थापना वीर नरसिंह द्वारा की जाती है, परन्तु इनका शासनकाल भी ज्यादा समय तक नहीं चलता है मात्र 4 वर्ष बाद इनकी मृत्यु हो जाती है। जिसके बाद इनके छोटे भाई कृष्णदेवराय तुलुव वंश के द्वितीय शासक बनते हैं जो विजयनगर साम्राज्य के सबसे प्रतापी शासक सिद्ध होते हैं।
कृष्णदेवराय 1509- 1529 ई. तक :
कृष्णदेवराय के समय तक बहमनी साम्राज्य पांच भागों मेंं टूट चूँका था तथा दूसरी तरफ से पुर्तगाली भी भारत में प्रवेश कर चूँके थे और लगातार आक्रमण कर रहे थे।
इन सभी चुनौतियों का सामना करते हुए कृष्णदेवराय ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा की थी और उसका विस्तार किया था तथा बहमनी शासक और पुर्तगालियों को अपनी सीमा पर ही रहने के लिए मजबूर कर दिया था।
इसके अलावा इन्होंने बहमनी साम्राज्य से एक युद्ध लड़ा था गोलकुण्डा का युद्ध इस युद्ध में इन्होंने बहमनी शासक कुतुब खाँँ को पराजित किया था।
जिसके बाद इन्होंने "आंध्रभोज एवं अभिनव भोज" की उपाधि धारण की थी। यह उपाधि इन्होंने परमार वंश के शासक राजाभोज के नाम पर ग्रहण की थी। क्योंकि ये राजा उस समय में शिक्षा के क्षेत्र में काफी बुद्धिमानी माने जाते थे।
कृष्णदेवराय के युग को तेलगु साहित्य का क्लासिक युग या Golden Age के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि इनके समय में तेलगु साहित्य का काफी विस्तार हुआ था।
साथ ही इनके दरबार में "अष्ट दिगज्ज" अर्थात् आठ कवि भी रहते थे।
तेनालीराम रामकृष्ण यह एक बहुत ही बुद्धिमान कवि थे, जिनकी कहानियाँँ आज भी भारत में प्रचलित है। यह भी कृष्णदेवराय के दरबार में रहते थे।
कृष्णदेव राय न केवल अपने दरबार में तेलगु कवि रखता था, परन्तु उसने स्वयं भी एक पुस्तक "अमुक्तमाल्याद" की रचना तेलगु भाषा में की थी।
इसके अलावा इन्होंने अपने राज्य में "हजारा और विट्ठलस्वामी" मंदिर का निर्माण करवाया था। जिसमें से विट्ठलस्वामी मंदिर काफी चर्चित मंदिर है। साथ ही इनके पूर्ववर्ति राजाओं की तरह इनके शासनकाल में भी विदेशी यात्री "डोमिगोस पायस और बारबोसा" नामक दो पुर्तगाली यात्री आए थे।
इसके पश्चात् 1529 ई. में कृष्णदेवराय की मृत्यु हो जाती है जिसके बाद इनके उत्तराधिकारी कुछ छोटे-छोटे समय के लिए शासक बनते हैं और अंत में तुलुव वंश का अंतिम शासक "सदाशिव" बनता है। जिसके शासनकाल में 1565 ई. में तालीकोटा नामक युद्ध लड़ा जाता है।
यह युद्ध बहमनी साम्राज्य के चार वंशों और तुलुव वंश के अंतिम शासक सदाशिव के मंत्री रामराय के बीच लड़ा जाता है। जिसमें विजयनगर की हार हो जाती है और एक बड़ा भाग विजयनगर साम्राज्य का बहमनी साम्राज्य के हिस्से में चला जाता है।
साथ ही इस युद्ध में रामराय में मारा जाता है, परन्तु विजयनगर का शासक सदाशिव जिन्दा रहता है और किसी प्रकार पांच सालों तक शासन करता है। जिसके बाद उसके मंत्री रामराय का भाई तिरूमल, सदाशिव पर आक्रमण कर उसे युद्ध में हरा देता है और तुलुव वंश का अंत कर देता है।
अरविडु वंश 1570-1650 ई. तक :
अरविडु वंश की स्थापना तिरूमल द्वारा की जाती है। तिरूमल शासक बनते ही अपनी राजधानी विजयनगर से स्थानांतरित कर पेनुकोड़ा ले आता है, क्योंकि वहाँँ पर बहमनी साम्राज्य का अधिकार हो गया था इस कारण वह सुरक्षित नहीं थी।
0 Comments