Table of Contant:
- सूर वंश की स्थापना और प्रारम्भिक विद्रोह:
- साम्राज्य विस्तार या प्रमुख युद्ध:
- रायसीन का युद्ध 1543 ई. :
- मारवाड़ का युद्ध 1544 ई. :
- शेर शाह सूरी के जीवन का अंतिम युद्ध कालिंजर का युद्ध 1545 ई. :
सूर वंश की स्थापना और प्रारम्भिक विद्रोह :
शेर शाह सूरी ने 1540 ई. में हुमायूँ को पराजित कर "सूर वंश" की स्थापना की थी। शेर शाह शाह सूरी ने राजा बनते ही सबसे पहले यह प्रयास किया कि जो पेशावर प्रदेश में "गक्खर" जाति है, उस पर आक्रमण कर उसे भारत से बाहर कर दिया जाए, क्योंकि इसी जाति के द्वारा हुमायूँ की मदद की जाती थी।
इसलिए शेर शाह सूरी ने 1541 ई. में पेशावर की गक्खर जाति पर आक्रमण कर दिया, जिसमें वह काफी हद तक सफल भी रहा, परन्तु पूरी तरह से इस जाति को भारत से बाहर करने में सफल नहीं हो सका, क्योंकि जिस समय वह गक्खर जाति को दबाने के लिए संघर्ष कर रहा था।
उसी समय बंगाल में कुछ लोगों ने विद्रोह कर दिया था, जिसे दबाने के लिए उसे पेशावर से वापस लौटना पड़ा़। बंगाल आकर उसने इस विद्रोह को पूरी तरह से दबा दिया।
Sher Shah Suri History in hindi |
इसके बाद शेर शाह सूरी यही नहीं रूका उसने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए मालवा पर आक्रमण कर दिया जहाँँ का शासक उस समय "मल्लू खाँ" था, जिसने शेर शाह सूरी से युद्ध न करके उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।
इस जीत के बाद शेर शाह सूरी ने सोचा कि मैं मुगलों को तो पूरी तरह से भारत से बहार करने में सफल हो गया हूँ, अब मुझे डर है तो सिर्फ राजपूत राजाओं को। इसलिए उसने कई छोटे राजपूत राजाओं के क्षेत्रों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर अपने अधीन कर लिया।
जिसमें से कुछ आक्रमण महत्वपूर्ण माने जाते हैं :
साम्राज्य विस्तार या प्रमुख युद्ध:
1. रायसीन का युद्ध 1543 ई. :
यह युद्ध रायसीन के शासक पूरनमल और शेर शाह सूरी के बीच लड़ा गया था, जिसमें शेर शाह सूरी ने किले को चारों तरफ से घेर लिया था, परन्तु यह किला इतना सुरक्षित था कि वह इसे लाख कोशिशों के बावजूद जीत नहीं पा रहा था।
तभी शेर शाह सूरी एक गुप्त योजना बनाता है और संधि करने के लिए एक फर्जी लेटर राजा पूरनमल के पास भिजवाता, लेकिन राजा पूरनमल को शेर शाह सूरी पर भरोसा नहीं था। इसलिए उसने इस संधि को अस्वीकार कर दिया।
परन्तु शेर शाह सूरी अपनी दूसरी चाल चलता है और राजा के सामने जाकर "कुरान" पर हाथ रखकर कसम खाता है कि अगर आप यह किला हमें दे दोगे और हमारी अधीनता स्वीकार कर लोगे तो हम आप पर आक्रमण नहीं करेंगे और न ही किसी राजपूत सैनिक को नुकसान पहुँचाएंगे।
जब राजा पूरनमल, शेरशाह सूरी को कुरान की कसम खाते हुए देखता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि अब वह सच में आक्रमण नहीं करेगा। इसके बाद राजा अपनी सेना और परिवार के साथ किले को खाली कर बाहर आ जाता है।
किन्तु यहाँँ पर उनके साथ धोखा होता है और शेर शाह सूरी रात के समय उनके टेन्टों को घैर लेता है। जब इस बात का पता राजा को लगता है तो वह सबसे पहले अपनी सेना को तैयार करता है और अपनी कुछ महिलाओं को स्वयं मरवा देता है और कुछ को जौहर करने के लिए प्रेरित करता है।
कुछ समय पश्चात् दोनों के बीच युद्ध शुरू हो जाता है, जिसमें शेर शाह सूरी बड़ी आसानी से इस युद्ध को जीत लेता है, परन्तु यह गलती उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल या एक कलंक के रूप में देखी जाती है, क्योंकि कहा जाता है कि जब शेर शाह सूरी कुरान की कसम खा रहा था तब उसका पुत्र "कुतुब खाँ" वहीं पर मौजूद था।
जो इस बात का एक मात्र गवाह था। बाद में कुतुब खाँँ को इतनी आत्मगलानी होती है कि वह आत्महत्या कर लेता है, क्योंकि शेर शाह सूरी ने अपने वाले को सही ढंग से नहीं निभाया था।
2. मारवाड़ का युद्ध 1544 ई. :
मारवाड़ का युद्ध राजा मालदेव और शेर शाह सूरी के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में शेर शाह सूरी को लग रहा था कि वह इस युद्ध को नहीं जीत सकता है। इसलिए वह मारवाड़ के राजा मालदेव के सूबेदारों की ओर से एक फर्जी लेटर लिखता है राजा मालदेव को कि जब शेर शाह सूरी आप पर आक्रमण करने के लिए आए तो आप उनकी अधीनता स्वीकार कर लेना।
हम आपका इस युद्ध में साथ नहीं देंगे। जब यह पत्र राजा मालदेव ने पढ़ा तो उसे अपने सूबेदारों पर भरोसा नहीं रहा और उसने युद्ध न लड़ने का निर्णय लिया।
वहीं जब इस बात का पता राजा मालदेव के सूबेदार "जयता और कुम्पा" लगता है तो वे अपनी क्षत्रियता और देशभक्ति को साबित करने के लिए अकेले ही शेर शाह सूरी से युद्ध करने का निर्णय कर लेते हैं। इसके बाद शेर शाह सूरी और जयता तथा कुम्पा का युद्ध शुरू हो जाता है।
इस युद्ध के बारे में कहा जाता है कि जयता और कुम्पा दोनों सूबेदार अपनी कम सेना होने के बावजूद इतनी वीरता से लड़ते हैं कि शेर शाह सूरी की विशाल सेना को काफी हद तक परेशान कर देते हैं। परन्तु अंत में वे वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं और इस प्रकार शेर शाह सूरी इस युद्ध को जीत लेता है।
लेकिन शेर शाह सूरी उनकी इस वीरता से इतना प्रभावित होता है कि वह उनके बारे में एक वाक्य कहता है कि :-
आज में मुठ्ठी भर बाजरे के लिए, हिन्दुस्तान जैसे विशाल साम्राज्य को प्राय: खो चुका था।"
यानी की वह इन दोनों सूबेदारों की वीरता को देखकर यह महसूस करता है कि अगर थोड़ी देर और युद्ध चलता तो शायद मैं इस युद्ध को हार जाता और यह मारवाड़ी़ इस युद्ध को जीत जाते। इस प्रकार मैं इस छोटी सी रियासत के लिए अपने भारत जैसे विशाल साम्राज्य को गंवा बैठता।
3. शेर शाह सूरी के जीवन का अंतिम युद्ध कालिंजर का युद्ध 1545 ई. :
कालिंजर का युद्ध 22 मई, 1545 ई. को राजा किरत सिंह और शेर शाह सूरी के बीच लड़ा गया था कालिंजर जो बुन्देलखण्ड में स्थित है। इस युद्ध में शेर शाह सूरी ने हमेशा की तरह किले को चारों तरफ से घेर लिया था, चूँकि राजा किरत सिंह किले के अंदर थे और शेर शाह सूरी किले के बाहर थे।
अब किला इतना सुरक्षित था कि शेर शाह सूरी उसके अंदर नहींं जा पा रहा था। इसलिए उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि किले की दिवार को विशाल तोपों के माध्यम से तोड़ दिया जाए। जिसके बाद सेना किले की दिवार को तोड़ने के लिए तोप के गोले दिवार पर दाग रहे थे, लेकिन इसी क्रम में एक गोला किले की दीवार से टकराकर वापस आ जाता है और जहाँँ पर शेर शाह सूरी खड़ा होता है।
वहीं पर आकर फट जाता है, जिससे शेर शाह सूरी की मृत्यु हो जाती है और इस प्रकार यह युद्ध शेर शाह सूरी के जीवन का अंतिम युद्ध साबित हुआ। शेर शाह सुरी की मृत्यु "उक्का नामक अग्नेयास्त्र" तोप के गोले से हुई थी।
इसके बाद सेना पुन: प्रयास करती है और कुछ देर बार वह किले की दीवार को तोड़ने में सफल हो जाती है और अंदर जाकर राजा किरतसिंह को पराजीत कर देती है।
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