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शेर शाह सूरी History in hindi :
शेर शाह सूरी की बारे में सामान्य जानकारी:
बचपन का नाम - फरीद खाँ
वंश - शूर वंश
जन्म - 1472 या कहीं पर 1486 ई. भी दिया होता है।
पिता - हसन खाँ जो बिहार, रोहतास जिले में सासाराम के जमीदार थे।
माता - रानी खाँ
भाई - निजाम खाँ
शिक्षा - जौनपूर (अरबी और फारसी भाषा में)
पूर्वाधिकारी - हुमायूँ
पुत्र - कुतुब खाँ, आदिल खाँ और जलाल खाँ
धर्म - इस्लाम
मृत्यु - 22 मई, 1545 ई. (कालिंजर)
प्रारम्भिक इतिहास पढ़ाई, उपाधि एवं दो विधवाओं से शादी :
"प्रो, परमात्मा शरण" : के अनुसार शेर शाह सूरी का जन्म 1472 ई. में हुआ था जबकि इतिहासकार कानूूंगों का मानना है कि उनका जन्म 1486 ई. को हुआ था।
शेर शाह सूरी के पिता ने 4 शादियाँ की थी, जिनसे उन्हें 8 लड़के प्राप्त थे और शेर शाह सूरी उनमें से पहली पत्नी के पुत्र थे, चूँकि हसन खाँ अपनी 4थें नम्बर की पत्नी से ज्यादा प्रेम करते थे और उसके पुत्रों को ज्यादा मानते थे। इसलिए शेर शाह सूरी का अपने पिता के साथ ज्यादा अच्छा संबंध नहीं रहता है। इसी कारण वे अपने पिता से नाराज होकर जौनपुर चले जाते हैं।
Sher Shah Suri History in hindi |
जहाँ पर वे "अरबी और फारसी" भाषा की शिक्षा ग्रहण करते हैं। शिक्षा ग्रहण करने के क्रम में ही जौनपुर के एक सूबेदार को शेर शाह सूरी की योग्यता और बुद्धिमता को देखकर लगता है कि नहीं यह बहुत योग्य लड़का है तभी वह शेर शाह सूरी के पिता के साथ उसके संबंध ठीक करवा देता है।
जिसका परिणाम यह होता है कि शेर शाह सूरी के पिता उन्हें वापास अपने पास सासाराम की जागीर में सहयोग करने के लिए बुला लेते हैं। जहाँ पर वे 1497 ई. से 1518 ई. तक सासाराम की जागीर को संभालने में अपने पिता की सहायता करते हैं। लेकिन कुछ वर्ष साथ बिताने के बाद उसके संबंध फिर से अपने पिता के साथ खराब होने लगते हैं।
इसका मूल कारण उसके सौतेले भाई और सौतेली माता थी। नतीजा यह होता है कि शेर शाह सूरी वहाँ से पुन: भाग जाता है और दक्षिण बिहार के एक सूबेदार "बहार खाँ लोहानी" के दरबार में नौकरी करने लगता है। यहाँ पर काम करने के दौर शेर शाह सूरी एक शेर को निहत्ते ही मार गिराता है।
शेर शाह सूरी की ऐसी बहादुरी देख बहार खाँ लोहानी बहुत प्रसन्न होता है और वह उसे "शेर खाँ" की उपाधि देता है और साथ ही उसे अपने पुत्र के संरक्षक के रूप में नौकरी पर रख लेता है।
लेकिन इसी क्रम में बहार खाँँ लोहानी अपने आप को दक्षिण बिहार का स्वतंत्र शासक घोषित कर लेता है और अपना नाम बदलकर "मुहम्मद शाह" रख लेता है। जिसके बाद शेर शाह सूरी यहाँँ से भाग जाता है।
चूँकि होता यह है कि बहार खाँँ लोहानी के कुछ दरबारी शेर शाह सूरी की तरक्की देख कर जलने लगते हैं, इस वजह से वे बहार खाँँ लोहानी को शेर शाह सूरी के खिलाफ फडकाना शुरू कर देते हैं कि यह लड़का आपको कभी भी धोखा दे सकता है और आपके पुत्र की हत्या कर गद्दी हड़प्प सकता है।
इस कारण शेर शाह सूरी वहाँँ से भागकर मुगल सेना में भर्ती हो जाता है, जहाँँ पर वह एक सेनिक के रूप में बाबर के साथ चन्देरी के युद्ध में शामिल होता है। यहीं पर रहकर वह मुगलों की युद्ध शैली और शासन करने के नियम आदि सीखता है और कहा जाता है कि इसी चंदेरी के युद्ध में शेर शाह सूरी ने एक वाक्य कहा था कि :-
"अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा तो मैं एक दिन अवश्य मुगलों को हिन्दुस्तान से बाहर करने में सफल हो जाऊँगा।"
चंदेरी के युद्ध के बाद शेर शाह सूरी पुन: भागकर बहार खाँँ लोहानी के दरबार में चला जाता है, जहाँँ पर बहार खाँँ लोहानी फिर से उसे शरण देता है और अपने पास रख लेता है।
लेकिन इसी बीच शेर शाह सूरी के लिए एक अच्छी घटना यह घटती है कि बहार खाँँ लोहानी की मृत्यु हो जाती है, जिसके बाद शेर शाह सूरी उसकी विधवा "दूदू बेगम" से विवाह कर लेता है। जिसके कारण एक प्रकार से देखा जाए तो वह साम्राज्य उसी का हो जाता है।
इसके बाद शेर शाह सूरी "जलाल खाँ" के सरंक्षक और प्रधान शासक दोनों ही पद पर रहकर कार्य करने लगता है। लेकिन इस बात से वहाँँ के कुछ दरबारी और सरदार खुश नहीं होते हैं और वे बहार खाँँ लोहानी के पुत्र जलाल खाँँ को भड़काने लगते हैं।
जिसका नतीजा यह होता है कि वह अफगान सरदारों के साथ बंगाल भाग जाता है और वहाँँ पर बंगाल के शासक "नुसरत शाह" की सहायता से 1529 ई. में शेर शाह सूरी पर आक्रमण करता है, लेकिन शेर शाह सूरी इस युद्ध को जीत जाता है और उसे भागने पर मजबूर कर देता है।
इस जीत के साथ ही शेर शाह सूरी का दक्षिण बिहार की सत्ता पर पूर्ण अधिकार हो जाता है। जहाँँ पर वह राजा बनने की खुशी में अपने आपको "हजरत-ए-आला" की उपाधि से नवाजता है।
इसके साथ ही एक और घटना घटती है, जिसमें चुनारगढ़ के शासक "ताज खाँ" की 1530 ई. में मृत्यु हो जाती है, जहाँँ पर शेर शाह सूरी जाकर उसकी विधवा "लाड मलिका" से विवाह कर लेता है।
इसी के साथ वह दो रियासतों की विधवाओं से विवाह करने पर "दक्षिण बिहार और चुनारगढ़" का शासक बन जाता है।अब यहाँँ से शुरू होती है शेर शाह सूरी के जीवन की असली चुनौतियाँँ।
प्रारम्भिक संघर्ष :
दौहरिया का युद्ध 1532 ई. :
शेर शाह सूरी का प्रारम्भिक संघर्ष सन् 1532 ई. में दौहरिया के युद्ध से शुरू हुआ था, क्योंकि यह युद्ध अफगान शासक महमूद लोदी और मुगल शासक हुमायूँ के बीच लड़ा गया था, जिसमें महमूद लोदी युद्ध हार गया था। चूँकि इस युद्ध में शेर खाँँने एक अफगान शासक होने के नाते महमूद लोदी का सहयोग किया था।
इस कारण हुमायूँ ने शेर शाह सूरी के किले चुनारगढ़ पर आक्रमण करने के लिए घेरा डाल दिया था और कई दिनों का घेरा डालने के बाद दोनों के बीच संधि हो जाती है, जिसमें शेर शाह सूरी हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर लेता है और कुछ पैसे तथा अपने पुत्र कुतुब खाँँ को 5000 सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ मुगलों की सेवा में भेज देता है।इस प्रकार बड़ी चतुराई के साथ शेर शाह सूरी अपने साम्राज्य को भारी नुकसान होने से बचा लेता है।
इस युद्ध के बारे में इतिहासकारों का मानना है कि यह संधि आगे चलकर हुमायूँ की सबसे बड़ी भूल साबित हुई, क्योंकि इसके 2 वर्ष बाद ही जब हुमायूँ अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए गुजरात में बहादुर शाह से संघर्ष कर रहा था उसी समय 1534 ई. में शेर शाह सूरी बंगाल में स्थित सूरजगढ़ पर आक्रमण कर उसे जीत लेता है।
चौसा का युद्ध 1539 ई. :
इस प्रकार शेर शाह सूरी बंगाल, बिहार और चुनारगढ़ तक के मगध के एक विशाल क्षेत्र पर अपना अधिकार करने में सफल हो जाता है। इस बात की खबर जब हुमायूँ को लगती है तो वह उससे युद्ध करने के लिए बिहार की ओर निकल पढ़ता है और दोनों के बीच "चौसा" नामक स्थान पर 1539 ई. में युद्ध होता है। इसी कारण इस युद्ध को चौसा का युद्ध कहा जाता है।
इस युद्ध में हुमायूँ बुरी तरह से पराजित हो जाता है और अपनी जान बचाने के लिए "कर्मनाशा नदी" में कूद जाता है, जहाँँ पर एक "निजाम" नामक भिश्ती उसकी जान बचाता है। दूसरी तरफ शेर शाह सूरी इस युद्ध को जीतने की खुशी में "शेर शाह सूरी" की उपाधि ग्रहण करता है।
कन्नौज का युद्ध 1540 ई. :
वहीं हुमायँ अपनी हार का बदला लेने के लिए फिर से युद्ध की तैयारियों में लग जाता है और कुछ ही महीनों के अन्दर 1540 ई. में फिर से इन दोनों के बीच कन्नौज का युद्ध होता है।
इस युद्ध को भी शेर शाह सूरी बड़ी चतुराई के साथ जीत लेता है और हुमायूँ को भारत छोड़कर भागने पर मजबूर कर देता है। इस युद्ध के बाद मुगल साम्राज्य का पतन हो जाता है और यहाँँ से शुरू होता है सूर साम्राज्य।
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